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इ॒हेन्द्रा॒ग्नी उप॑ ह्वये॒ तयो॒रित्स्तोम॑मुश्मसि। ता सोमं॑ सोम॒पात॑मा॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ihendrāgnī upa hvaye tayor it stomam uśmasi | tā somaṁ somapātamā ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

इ॒ह। इ॒न्द्रा॒ग्नी इति॑। उप॑। ह्व॒ये॒। तयोः॑। इत्। स्तोम॑म्। उ॒श्म॒सि॒। ता। सोम॑म्। सो॒म॒ऽपात॑मा॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:21» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:2» वर्ग:3» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:5» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब इक्कीसवें सूक्त का आरम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में इन्द्र और अग्नि के गुण प्रकाशित किये हैं-

पदार्थान्वयभाषाः - (इह) इस संसार होमादि शिल्प में जो (सोमपातमा) पदार्थों की अत्यन्त पालन के निमित्त और (सोमम्) संसारी पदार्थों की निरन्तर रक्षा करनेवाले (इन्द्राग्नी) वायु और अग्नि हैं (ता) उनको मैं (उपह्वये) अपने समीप काम की सिद्धि के लिये वश में लाता हूँ, और (तयोः) उनके (इत्) और (स्तोमम्) गुणों के प्रकाश करने को हम लोग (उश्मसि) इच्छा करते हैं॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को वायु और अग्नि के गुण जानने की इच्छा करनी चाहिये, क्योंकि कोई भी मनुष्य उनके गुणों के उपदेश वा श्रवण के विना उपकार लेने को समर्थ नहीं हो सकते हैं॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

तत्रेन्द्राग्निगुणा उपदिश्यन्ते।

अन्वय:

इह यौ सोमपातमाविन्द्राग्नी सोमं रक्षतस्तावहमुपह्वये तयोरिच्च स्तोमं वयमुश्मसि॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (इह) अस्मिन् हवनशिल्पविद्यादिकर्मणि (इन्द्राग्नी) वायुवह्नी। यो वै वायुः स इन्द्रो य इन्द्रः स वायुः। (श०ब्रा०४.१.३.१९) (उप) सामीप्ये (ह्वये) स्वीकुर्वे (तयोः) इन्द्राग्न्योः (इत्) चार्थे (स्तोमम्) गुणप्रकाशम् (उश्मसि) कामयामहे। अत्र इदन्तो मसि इति मसेरिदन्त आदेशः (ता) तौ। अत्रोभयत्र सुपां सुलुग्० इत्याकारादेशः। (सोमम्) उत्पन्नं पदार्थसमूहम् (सोमपातमा) सोमानां पदार्थानामतिशयेन पालकौ॥१॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैरिह वाय्वग्न्योर्गुणा जिज्ञासितव्याः। न चैतर्योर्गुणानामुपदेशश्रवणाभ्यां विनोपकारो ग्रहीतुं शक्योऽस्ति॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

विसाव्या सूक्तात सांगितलेल्या बुद्धिमान लोकांच्या पदार्थविद्येच्या सिद्धीसाठी वायू व अग्नी मुख्य कारण आहेत. हा अभिप्राय जाणण्याने पूर्वोक्त विसाव्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर एकविसाव्या सूक्ताच्या अर्थाचा मेळ घातला पाहिजे.

भावार्थभाषाः - माणसांनी वायू व अग्नीचे गुण जाणण्याची जिज्ञासा ठेवली पाहिजे. कारण कोणतीही माणसे त्यांच्या गुणांचा उपदेश व श्रवण केल्याशिवाय उपयोग करून घेण्यास समर्थ होऊ शकत नाहीत. ॥ १ ॥